बुर्का को लेकर एक और देश ने कानून लागू कर दिया है। अभी तक फिलहाल बेल्जियम, फ्रान्स, डेनमार्क, ऑस्ट्रिया, नीदरलैंड और बुल्गारिया में बुर्का को बैन किया गया था और अब स्विट्जरलैंड ने भी 2025 के पहले दिन से ही बुर्का को बैन कर दिया है।
इस नये कानून के तहत महिलाएँ सार्वजनिक स्थलों पर बुर्का, हिजाब या किसी नकाब का इस्तेमाल नहीं कर पाएँगी जो कि उनके पूरे चेहरे को ढँकता हो। यदि किसी के द्वारा इस कानून का उल्लंघन किया जाता है तो उसे सजा के तौर पर 1000 स्विस फ्रैंक अर्थात भारतीय मुद्रा में लगभग 94 हजार रुपए का जुर्माना भरना होगा।
यह बैन सुरक्षा की दृष्टि से स्विट्जरलैंड में लागू किया गया है और यह 2021 में हुए एक जनमत संग्रह के आधार पर किया गया जिसमें लगभग 51.2% लोगों ने बुर्के पर बैन लगाने के पक्ष में वोट दिया था। हालाँकि यह कानून स्विट्जरलैंड में लागू किया गया है लेकिन इसका असर भारत पर भी पड़ता हुआ दिखाई दे रहा है।
स्विट्जरलैंड में जैसा हुआ है वैसा भारत में ना हो इसके लिए भारत के मौलानाओं का कहना है – “पर्दे का कॉन्सेप्ट सुरक्षा के लिए है। किसी पर कोई दबाव नहीं बनाया जाना चाहिए और बुर्के को बैन करना महिलाओं की आजादी पर हमला है।” वहीं भारत की कुछ मुस्लिम महिलाएँ भी इसके पक्ष में कहती हैं कि “भारत एक सेक्युलर देश है। भारत का संविधान हमें इजाजत देता है हम जो चाहे पहने। बुर्के पर पाबंदी हम लोग नहीं बर्दाश्त कर सकते हैं। यह महिलाओं पर जुल्म है।”
क्या होता है बुर्का या हिजाब?
बुर्का हो या हिजाब, यह एक ऐसा कपड़ा होता है जिससे मुस्लिम महिलाएँ अपने शरीर अथवा सिर को ढँकती हैं। बात अगर बुर्के की जाए तो बुर्का ज्यादातर काला, गुलाबी या फिर बादामी रंग का होता है। इसमें महिलाएँ सिर से लेकर पाँव तक पूरी ढँकी हुई होती हैं। आँखों के सामने कपड़े की एकमात्र जाली लगी होती है जिससे सामने देखा जा सके नहीं तो केवल उनकी आँखें दिखाई देती हैं। बाकी उनका पूरा शरीर काले कपड़े से यानी कि बुर्के से ढँका होता है। वहीं अगर हिजाब की बात की जाए तो हिजाब सिर ढँकने वाला एक दुपट्टा होता है जिसमें चेहरा दिखता है लेकिन सिर ढँका होता है।
इसकी शुरुआत कहाँ से हुई?
बुर्का पहनने की जरूरत पड़ी ही क्यों? यदि हम समय में थोड़ा पीछे जाएँ तो हमें पता चलेगा कि इसकी उत्पत्ति कहाँ से हुई है? और किस लिए हुई है? इस्लाम धर्म की शुरुआत सातवीं शताब्दी में सऊदी अरब से हुई है ऐसा माना जाता है। सऊदी अरब की भौगोलिक स्थितियों के कारण वहाँ के लोगों ने अपने आप को वहाँ रहने लायक बनाया। उनका पहनावा जो उस समय की जरूरत थी, आज धर्म का रूप ले चुकी है।
चलिए थोड़ा विस्तार से समझते हैं – सऊदी अरब एक गर्म देश है इसलिए वहाँ के पुरुष सफेद कुर्ता, पजामा और टोपी पहना करते थें ताकि गर्मी से थोड़ी राहत मिल सके। सफेद वस्त्र सूरज की रोशनी और गर्मी को परावर्तित कर देते हैं जिससे गर्मी कम लगती है।
और पढ़ें-जानिए यह फल वेज है या नॉनवेज
अब अगर बात की जाए उनके पजामे हमेशा टखने के ऊपर क्यों होते हैं? तो इसका कारण है “उनका रेत में चलना।” रेत में मिली धूल-मिट्टी से पजामे नीचे से गन्दे हो जाएँगे तो उन्हें धोना पड़ेगा और ये उस समय सम्भव नहीं था क्योंकि वहाँ पानी की किल्लत होती थी तो इस वजह से लोगों ने इस बात का ध्यान रखा कि उनके कपड़े कम गन्दे हो। इसलिए उन्होंने पजामे को टखने के ऊपर रखा।
गर्म हवाओं और उड़ती रेत से बचने के लिए जिस तरीके से पुरुष अपने आप को ढँक कर रखते थे, (आज भी सऊदी अरब में आप देखेंगे तो पुरूष ज्यादातर आपको ढँके हुए ही मिलेंगे, केवल उनका चेहरा ही दिखता है।) ठीक उसी तरीके से महिलाओं ने भी अपने-आप को सिर से लेकर पाँव तक ढँक लिया। फिर शायद किसी पुरुष ने प्रेमवश अपने बेगम साहिबा को चेहरा भी ढँक लेने की सलाह दे डाली होगी ताकि आँखों में उड़ती रेत या धूल न चली जाय। उस समय की स्थिति जो कि सुरक्षा की दृष्टि से लागू की गयी थी, आज उनकी परम्परा बन गई है और अब एक रूढ़ीगत विचारधारा में बदल चुकी है।
अच्छा ऐसा होता क्यों था? क्योंकि लोग एक जगह नहीं रहा करते थें। वे अपने ऊँटों और जानवरों को लेकर एक जगह से दूसरी जगह यात्रा किया करते थें जिनमें उन्हें भौगोलिक परिस्थितियों का भरपूर सामना करना पड़ता था। जिसमें धूप, आँधी-तूफान, उड़ती रेत आदि सभी शामिल थें और यदि अगर कोई सूक्ष्मता से इन सब बातों पर ध्यान दे तो उसे साफ, स्पष्ट तौर पर पता चल जाएगा कि उनके हाथ धोने का तरीका अलग क्यों है? उनके खाने में केवल मांस क्यों है? पानी की कमी ने हाथ धोने का तरीका बदला, रेतीली जमीन होने की वजह से उन्होंने अन्न नहीं उगाया, जानवरों का मांस खाया।
खैर, आज की स्थिति थोड़ी अलग है। यदि मुस्लिम महिलाएँ अभी भी इस स्थिति को लेकर चल रही हैं तो कहीं न कहीं वह बदलते समाज के साथ अपने आप को बदलना नहीं चाहती हैं। आज कम से कम बुर्के की जरूरत तो नहीं महसूस होती है क्योंकि आज परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। आज भारत और स्विट्जरलैंड जैसे देश में लोग रह रहे हैं जहाँ पर कम से कम उनको भीषण गर्मी और रेत भरी आँधियों का सामना नहीं करना पड़ता है। तो उस हिसाब से देखा जाए तो बुर्का पहनना अब उतना भी जरूरी नहीं है जितना पहले हुआ करता था। फिर भी पहनना ही है तो हिजाब पहन सकते हैं जिसमें आपका चेहरा पूरी तरह से दिखता है, जिसमें आपकी पहचान छिपती नहीं है।
बेवकूफियों के उदाहरण
लेकिन उनमें यह मानसिकता कुछ इस तरीके से घर कर चुकी है कि वह चाहते हुए भी इससे बाहर नहीं निकल पाती हैं और इस नासमझी में कुछ ऐसी मूर्खतापूर्ण व्यवहार किये जा रही हैं जो हास्यास्पद हैं। उदाहरण के तौर पर अभी हाल ही में हुयी घटना जो कि जम्मू और कश्मीर लद्दाख हाई कोर्ट की है जहाँ पर एक महिला अधिवक्ता जिनका नाम सैय्यद ऐनीन कादरी है, कोर्ट में बुर्का पहन के केस लड़ना चाहती थीं और जब वहाँ के जज, राहुल भारती ने उन्हें बुर्का हटाने को कहा तो ऐनीन कादरी जी ने साफ मना कर दिया। नतीजतन कोर्ट ने मामले की सुनवाई से इनकार कर दिया और मामले की सुनवाई स्थगित कर दी।
इसके पहले भी ऑस्ट्रेलिया में एक ऐसी घटना घट चुकी है जिसमें अदालत में एक महिला बुर्के में अपना बयान देना चाहती थी लेकिन जज साहब ने उसका बयान सुनने से मना कर दिया क्योंकि वह अपना चेहरा नहीं दिखाना चाहती थी। जाहिर सी बात है कि अदालत जैसी सार्वजनिक जगह पर जहाँ आपके व्यक्तिगत पहचान की सख्त आवश्यकता है वहाँ आप अपनी व्यक्तिगत पहचान छिपाकर यानी कि चेहरा ढँक करके ऐसा कुछ नहीं कर सकतीं।
ऐसी महिलाएँ क्या चाहती हैं?
बुर्के को लेकर मुस्लिम महिलाएँ क्या चाहती हैं? या फिर जो मुस्लिम समाज है वह क्या सोच रखता है? देखिए यदि ऐसी महिलाओं की बात की जाये तो इसके पीछे एक यह भी मानसिकता हो सकती है कि जो ऐसी महिलाएँ हैं वह पुरुषों को लुभाना चाहती होंगी क्योंकि पुरुषों की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि वों नई चीजों को खोजना चाहते हैं, रहस्य से पर्दा उठाना चाहते हैं। और सम्भवतः अपने इस उत्साह को बनाए रखने के लिए मुस्लिम पुरुषों ने इस परम्परा का ईजाद किया होगा और बेशक इसमें कुछ दुष्ट महिलाओं ने साथ भी दिया होगा और आज दे भी रही हैं। इनकी सारी हरकतें कामवासना से पीड़ित है।
उदाहरण के तौर पर अफगानिस्तान में तालिबान ने फरमान जारी किया है कि मकानों की खिड़कियाँ आमने-सामने नहीं खुल सकतीं क्योंकि “महिलाओं को रसोई में, आँगन में या कुएँ से पानी भरते हुए देखना अश्लील कृत्यों को जन्म दे सकता है।” अब तालिबानियों के इस फरमान से ही आप समझ सकते हैं कि तालिबानी कितने कामुक विचारधारा के हैं। वह काम करते हुए महिलाओं को देख अपने-आप को नहीं रोक पा रहे हैं, तो वह उनके खूबसूरत चेहरों को देख खुद को कैसे रोक पाएँगे। आप स्वयं सोच सकते हैं।
कहीं न कहीं उनकी मानसिकता यह दिखाती है कि वह कितने हवसी हैं और इसीलिए वह महिलाओं के शरीर पर सूरज की एक किरण भी पड़ने देना नहीं चाहते हैं जिससे उनका रंग धूमिल हो। अपनी हवस की भूख मिटाने के लिए महिलाओं को चार दिवारी में कैद कर दिया है और कभी बाहर निकलने की इजाजत मिलती भी है तो सिर से लेकर पाँव तक काले कपड़े में। बाहर उनकी कोई पहचान नहीं है, वह केवल और केवल एक काला कपड़ा हैं, एक साया हैं जो आया था और चला गया। और काला ही क्यों? क्योंकि ज्यादा देर तक धूप में वह रह ना सके और फिर से वह भाग के अपने चार दिवारी में छिप सकें। व्यक्ति की पहली पहचान ही उसके चेहरे से होती है और इस्लाम ने उसे भी खत्म कर दिया है। चेहरा ढँकवा दिया फिर बाकी के काम से वह कहाँ अपनी पहचान बना पाएँगी?
शुरुआत हो चुकी है, बदलाव भी जल्दी आएगा।
Dekhte hain…