आज का अनुभव

आपके साथ लोग कब कैसा व्यवहार करेंगे, इसका अनुमान लगाना थोड़ा कठिन कार्य है। पशुओं के बीच रहते हुए आपको सम्भवतः उनके क्रियाकलापों से इस बात का ज्ञान हो जाएगा कि वो कब, क्या करने वाले हैं किन्तु मनुष्यों का? बिल्कुल भी नहीं। यहाँ प्रत्येक व्यक्ति मानों एक मुखौटा ओढ़े हुए है, भलाई का, अच्छाई का। किन्तु वो कब अपना मुखौटा उतारेगा या दूसरा मुखौटा ओढ़ेगा, कुछ भी निश्चित नहीं है। आज का दृश्य भी कुछ ऐसा ही था। अभी परसों की ही बात है- ममता दीदी, हमारी प्रबन्धक महोदया ने टीम के लगभग आधे से अधिक लोगों को जम के फटकार लगायी थी जिसमें से मैं भी एक था। वो अलग बात है कि मुझे उनकी बातों का बहुत बुरा नहीं लगा लेकिन हमारी टीम में कोई ऐसा था जिसे इस बात का बहुत बुरा लगा था और वो थी नैना।

सुबह से ही उसका दिन ख़राब जा रहा था। काम करते हुए भी उसे इस बात के ताने (नैना के अनुसार) सुनने के लिए मिल रहे थे कि कोई काम-धाम तो है नही, फिर क्या हो रहा है? वो अलग बात है कि उसने अपने सफाई में बोला- नहीं ऐसी बात नहीं है, फिलहाल मैं गाईडलाइन्स पढ़ रही हूँ लेकिन ये उनके लिए सन्तोषजनक उत्तर नहीं था। चेहरे पर असन्तोष की भावना स्पष्ट झलक रही थी। उनके इस व्यवहार से नैना को गहरी वेदना हुई और उसकी झील सी शान्त गहरी आँखों में हलचल मच गयी। देखते ही देखते ये हलचल कब धारा में बदल गयी पता ही नहीं चला। मैं उसके ठीक सामने ही दूसरी तरफ बैठा हुआ था। उसे इस बात का पूरा विश्वास था कि कोई उसे देखे न देखे, मैं अवश्य ही उसे देख रहा होउँगा। मुझसे नज़रे मिलते ही नैना अपनी आँखें चुराने लगी। मैंने इशारों में ही पूछा – क्या हुआ? नैना ने सिर हिलाकर उत्तर दिया – कुछ नहीं। यद्दपि मुझे परिस्थितियाँ समझ में आ रहीं थीं तथापि मुझे जानना था कि हुआ क्या है? ममता दीदी ने ऐसा क्या कह दिया कि नैना रोने लगी। नैना के मासूम से चेहरे पर आँसू अच्छे नहीं लग रहे थें। मैंने उसे अपना वाटर बॉटल दिखाते हुए इशारों में कहा – चलो पानी लेकर आते हैं। हम दोनों बॉटल में पानी लेने के लिए नहीं बल्कि एक दूसरे से बात करने के लिए चल दिए। साथ चलते समय नैना के चेहरे पर पल भर के लिए हल्की सी मुस्कान आ गयी क्योंकि उसके बॉटल में पहले से ही पानी था।

“बस, मैं अब और नहीं सह सकती, मैं सच बता रही हूँ ये गुस्सा किसी न किसी दिन इनके ऊपर निकाल दूँगी और मैं जब बोलूँगी तो मुझे खुद भी नहीं पता, मैं क्या-क्या बोल दूँगी। गुस्सा यहाँ नहीं निकलेगा तो कहीं और निकल जाएगा। यार, ये मेरे साथ ऐसे ट्रीट कर रहीं हैं जैसे ये मेरी सास हों। समझ के क्या रक्खी हैं यार? आते-जाते कुछ भी बोल रहीं हैं। यहाँ की अलग टेंशन, शादी की अलग टेंशन, घर की अलग।” रास्ते में हुई पूरी बातचीत से पता चला कि ये आँसू किसी एक दिन के कटाक्ष के परिणाम नहीं थें, बल्कि कई महीनों के थे। नैना इतनी कुण्ठित हो चुकी थी कि इन तनावों से छुटकारा पाने के लिए वो ये जॉब तक छोड़ना चाहती थी लेकिन मजबूर थी क्योंकि उसके घर की एक अलग ही समस्या थी – मुम्बई में किराये के मकान में रहने वाला परिवार अपना खुद का घर कब नहीं लेना चाहेगा। ऐसा ही कुछ सपना नैना के पिता जी का भी था। कई वर्षों बाद लॉटरी में एक घर निकला था जो सही दाम में मिल रहा था। इसलिए ये मौका कोई नहीं छोड़ना चाहता था। और फिर क्या था, बैंक से लोन लेकर घर खरीद लिया। घर खरीदने का सपना तो पूरा हो गया लेकिन साथ ही में कर्ज के बन्धन में भी बँध गये लोग। कर्ज भरने की जिम्मेदारी नैना के ऊपर थी इसलिए वो ये जॉब नहीं छोड़ सकती थी। सो पैसों की अलग टेंशन थी। इन परिस्थितियों में काम करना उसकी मजबूरी सी बन गयी थी।

सुबह के इस घटना के बाद नैना पूरा दिन मेरे साथ रही। हमने साथ में मीटिंग अटेंड की, साथ में लंच किया, साथ में समय बिताया। दिन ठीक-ठाक लगभग बीत ही गया था लेकिन शाम की मीटिंग से ठीक पहले ममता दीदी ने हम लोगों को अपने पास बुलाया और जोरदार फटकार लगायी। ये फटकार, एक लर्निंग कोर्स को गलत लेवल पर रजिस्टर करने के लिए थी। बहुत भला-बुरा कहा दीदी ने, इंग्लिश नहीं आती है तो इंग्लिश कोर्स करो, आप लोगों को सिम्पल इंग्लिश नहीं आती है, कितनी बार समझाया मैंने आप लोगो को लेकिन नहीं, डमेस्ट पर्सन हैं आप लोग। और भी बहुत सारी बातें जो उस समय हृदय गति को असामान्य रूप से निरन्तर बढ़ा रहीं थीं। दीदी की ये सारी बातें नैना के लिए जले पर नमक छिड़कने के समान थी। अब तो जो बुरा हाल हुआ उसका आप स्वयं कल्पना कर सकते हैं। आँसू थें कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थें। मैं उसे टीम के बाकी लोगों से दूर, माइक्रो किचन में लेकर गया, वहाँ थोड़ा समझाया-बुझाया, सान्त्वना दिया, इधर-उधर की बातें की ताकि उसका मन थोड़ा शान्त हो सके और वो आराम से अपने रूम पर जा सके।

सभी लोग कार्यालय से निकल चुके थे, मैंने दीदी को बाय बोला लेकिन उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया, शायद वो अपने ही किन्हीं विचारों में डूबी हुई थीं। मैं भी चुपचाप निकल गया। मैं रास्ते भर बड़-बड़ करता आया। भुनभुनाता रहा कि यदि कोई बात इतनी ही महत्त्वपूर्ण थी तो उसे साफ-साफ शब्दों में कह देना चाहिए था कि आपको ये लेवल सेलेक्ट करना है उनको ये सेलेक्ट करना है, बात समाप्त हो जाती। लेकिन नहीं सीधी बात उनको कहनी अच्छी कहाँ लगती है। घूमा फिरा के कहेंगी और फिर डाँटेंगी, यही उनका स्वभाव है। जब पूछो तो कहेंगी – जब सब मुझसे ही पूछ के करना है तो आप लोग सैलरी किस बात की लेते हो और जब ना पूछो तो कहेंगी – मुछसे आप लोग पूछ नहीं सकते थे। बड़ी ही विचित्र दुविधा है पूछो तो भी समस्या, ना पूछो तो भी समस्या।

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मैं इसी उधेड़-बुन में लगा था और शनिवार को पार्टी में जाऊँ या ना जाऊँ सोच रहा था। अपने इस समस्या का समाधान निकालने के लिए मैंने टीम के एक अनुभवी व्यक्ति, श्रीकान्त से बात की। पहले तो उन्होंने भी अपने मन की भड़ास निकाली क्योंकि वो भी हम में से एक थे जिन्होंने गलती की थी। फिर बाद में उन्होंने ये स्पष्ट किया कि क्यों हमें पार्टी में जाना चाहिए – श्रीकान्त के अनुसार, “यदि हम पार्टी में नहीं जाते हैं तो इसका सीधा मतलब होगा कि हम लोग अपनी नाराजगी जाहिर कर रहे हैं जिससे ये होगा कि दीदी हमें अपने टार्गेट पे ले लेंगी और हम उनकी नजर में चढ़ जाएँगे। इसके अलावा, पार्टी के लिए वो अपने जेब से तो पैसे दे नहीं रहीं हैं। ये पैसे कम्पनी देती है, साल भर में एक बार अपने इम्प्लॉइज़ के लिए। तो देखा जाए तो ये हमारा हक़ है भाई… और हमें अपना हक़ बिल्कुल भी नहीं गँवाना है। इससे एक नया अनुभव ही मिलेगा, तो मैं तो यही कहूँगा आओ और देखो ये लोग पार्टी में क्या तमाशा करते हैं। अरे भाई आओगे तभी तो पता चलेगा।”

श्रीकान्त की बातें सुनकर मैं जाने के लिए तैयार हो गया था। अब रह गयी थी बात नैना की कि वो जाएगी या नहीं। तो मैंने उसे तुरन्त मैसेज किया और मैसेज का उत्तर मुझे नहीं में मिला, मैंने समझाने का प्रयास किया किन्तु उस दिन कोई विशेष उत्तर नहीं मिला। मैंने भी बात को वहीं समाप्त कर देना सही समझा क्योंकि नैना अभी कुण्ठित थी उसे सोचने-समझने के लिए थोड़ा समय चाहिए था। अगले दिन, शुक्रवार को दीदी ने सबके साथ वन ओ वन किया और सभी को अपना-अपना बोनस पता चला। नैना के साथ भी वन ओ वन हुआ (दीदी के साथ पर्सनल मीटिंग) किन्तु आज दीदी थोड़ी पिघली हुई थीं मानो कठोर लौह पश्चाताप की अग्नि में तप कर पानी हो गया हो। दीदी ने नैना से पूछा – “कल तुम्हारा चेहरा उतरा हुआ था, मेरे डाँटने का बुरा लगा? कब चली गयी कुछ पता ही नहीं चला?” नैना ने बात को आगे न बढ़ाते हुए केवल इतना कहा – “नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। कल रूम पे थोड़ा जल्दी पहुँचना था तो जल्दी निकल गयी।” दीदी ने कहा – “ठीक है तो फिर कल मिलते हैं।” नैना ने भी हाँ कह दिया और वन ओ वन समाप्त हुआ।

आज वो दिन है जो पार्टी के लिए निर्धारित हुआ था, शनिवार। सभी को ‘द 13th फ्लोर‘ पहुँचना था, दोपहर के लगभग एक से दो के बीच में। मैं ये नाम सुनकर अचरज में पड़ गया था जब इसका प्रस्ताव रखा गया था। मुझे यही नहीं समझ में आ रहा था कि अपने ऑफिस के बिल्डिंग के तेरहवें मंजिल पर जाना है या कहीं और। बाद में मुझे पता चला कि ये एक ‘बार और रेस्ट्राँ’ है जहाँ मादक पेय पदार्थों के साथ-साथ निरामिष और सामिष दोनों प्रकार के भोजन मिलते हैं। भोजन भी ऐसे जो आपको साधारण भोजनालय में ना मिलें। चूँकि ये क्षेत्र काफी उच्चवर्गीय था तो यहाँ के भोजनालय भी वैभवशाली ही थें। इस क्षेत्र में आकर मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो मैं मुम्बई में हूँ, वो अलग बात है कि मैं कभी मुम्बई गया ही नहीं हूँ। लेकिन चलचित्रों के माध्यम से जितना भी देखा था उससे मुझे यही लग रहा था। लोगों का रहन-सहन, पहनावा, बोलचाल की भाषा एवं उनकी जीवन शैली सब कुछ अलग। एक क्षण के लिए मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानों मैं स्वपन देख रहा हूँ। चर्च स्ट्रीट में आने-जाने वाले लोगों की भीड़ लगी हुई थी, कोई अपने फोन की मस्ती में चला जा रहा था तो कोई खरीदारी करके झोला झुलाते हुए। बस सब कहीं चले जा रहे थें, राम जानें कहाँ? लेकिन चले जा रहे थें। बड़ी-बड़ी इमारतें आपस में ही प्रतिस्पर्धा कर रही थीं, पूरा नगर विज्ञापनों की चकाचौंध में खोया हुआ था और मैं भी। तभी श्रीकान्त ने कहा – अरे भाई, कुछ ऑर्डर करोगे? देखो जो पसन्द आये वो ऑर्डर करो। ऑर्डर आने में समय लगता है। मैंने सहमति में सिर हिलाया और बोला-क्यों नहीं, लेकिन उससे पहले मैं थोड़ा पानी पीना चाहूँगा और मैं मेज पर रखे काँच के गिलास और बोतलों के बीच पानी ढूँढ़ने लगा। पानी तो दिखा नहीं लेकिन दारू के बोतल जैसी आकृति वाली बोतल में पानी जैसा कुछ प्रतीत हो रहा था और मैं संकोचवश उसे छू नहीं रहा था, मुझे डर था कि यदि ये दारू निकला तो लोग मेरी हँसी उड़ाएँगे। मेरी दुविधा को देखते हुए मेरे बगल में बैठी अनु ने मुझे प्रोत्साहित किया – “लो ना… पानी ही है।” वैसे, अनु आज पूरी तरह से विदेशी दिख रही थी। बिना बाँहो वाले सफेद रंग के टॉप और कैप्री में, जो कि आपस में एक-दूसरे को छूने का निरर्थक प्रयास कर रहें थें। आँखों पे धूप का चश्मा पहने हुए, अनु ऐसी लग रही थी मानों हमारे बीच कोई सैलानी आ गया हो। इस नये व्यक्तित्व के नामकरण के लिए मेरे और श्रीकान्त के मुख से केवल एक ही नाम निकला, ‘ऐनी’ और दोनो लोग एक साथ हँस पड़े, फिर मैंने भोजन की सूची पर नजर डाली ताकि कुछ पेट पूजा किया जा सके लेकिन कुछ समझ में नहीं आया इसलिए मैंने ये जिम्मेदारी श्रीकान्त के ऊपर ही छोड़ दी। उन्होने ‘क्रन्ची मसाला लोटस रूट’ और कोई ‘मैंगो फ्लेवर्ड जूस’ मँगाया था। मैंने उसी में से थोड़ा लिया और चखा, अच्छा था, खाने में स्वादिष्ट लग रहा था। भोजन का सिलसिला ऐसे ही चल रहा था, कभी मैं कुछ ऑर्डर करता तो कभी श्रीकान्त और जिन लोगों को सामिष भोजन पसन्द था वो अपनी अलग टोली बनाकर एक दूसरे मेज पर भोजन का आनन्द उठा रहे थें। तभी हमारी प्रबन्धक महोदया का पदार्पण होता है और सभी उनका अभिवादन करने लगते हैं। उन्होंने भी सबका कुशल-क्षेम पूछा और फिर सब अपने-अपने में मगन हो गये। किसी ने व्हिस्की ऑर्डर की तो किसी ने मॉकटेल, सब अपनी पसन्द के अनुसार कुछ न कुछ ऑर्डर कर रहे थें और पार्टी का आनन्द उठा रहे थें।

जिस पार्टी की मैंने कल्पना की थी ये उससे बिल्कुल अलग थी, मैंने बहुत ही साधारण पार्टी सोची थी- मुझे लगता था टीम के सभी लोग एक साथ इकट्ठा होंगे और बाहर कहीं भोजन करने चलेंगे, जिस शालीनता से लोग कार्यालय में रहते हैं वैसे ही यहाँ पर भी रहेंगे लेकिन यहाँ सब मेरी सोच के परे हुआ। लोग मदिरापान करके मदमस्त हो रहे थें और बच्चों जैसा व्यवहार कर रहे थें। ताली बजा-बजाकर जोर-जोर से हँसना और चिल्ला-चिल्लाकर बातें करना, ये सब आज उनके आनन्द का विषय था – मुख्य रूप से ममता दीदी के टीम का। विस्मय तो तब हुआ- जब दीदी ने नैना को गले लगाया, गाल से गाल मिलाकर दुलार किया, चूमा, उसके कन्धे पर अपना हाथ रखा और उसके सिर पर अपनी ठुड्डी टिका के बात की। मुझे थोड़ा सा भी विश्वास नहीं हो रहा था कि ये वही ममता दीदी हैं जिन्होंने परसों, नैना को जम के झाड़ा था और जिसके कारण नैना ने जॉब तक छोड़ने का निश्चय कर लिया था। इतना बदलाव? वो भी अचानक से? मुझे अपनी ही आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, कोई इतनी जल्दी कैसे बदल सकता है? दीदी, नैना के साथ ऐसे घुल-मिल गयीं थीं मानो उन दोनों के बीच कितनी गहरी मित्रता हो, वर्षों बाद आज मिलना हुआ हो। मैं इन्हीं सब बातों पर आश्चर्यचकित हो रहा था कि तभी विराग मेरे पास आकर बैठ गयें और बोले – क्या हो रहा है? विराग हमारे टीम के ही एक सदस्य हैं जो द्रविड़ भाषा पर काम करते हैं। मैंने कहा- कुछ नहीं बस ऐसे ही लोगों को देख रहा हूँ, कौन क्या कर रहा है? ममता दीदी के टीम की मदहोशी देखकर मैंने कह दिया- यहाँ क्या झूम रहें हैं लोग? आएँ कभी बनारस, भांग की ठण्डई में ठण्डे हो जाएँगे लोग। इस पर विराग ने तुरन्त कहा- ए… क्या बात करता है? तुम तो बनारस रहने ही दो। आया तो था मैं, मिलने भी नहीं आया तुम। मैं इत्ती दूर से बनारस गया था और तुम सारनाथ में रह के नहीं आया। आज बात आयी है तो बोल रहा हूँ आँ…। मैं उत्तर सुन के अवाक् रह गया, मेरे मुख से एक शब्द भी ना निकल सका लेकिन सोच में अवश्य पड़ गया कि लोग कितनी भी पुरानी बात हो, भूलते नहीं हैं और अवसर पड़ने पर बोलने से चूकते भी नहीं हैं। मैं उस ग्लानि को हल्की सी मुस्कुराहट के पीछे छिपाते हुए वहाँ से बाहर चला गया।

कुछ देर बाद जब मैं वापस आया तो देखा भोजनालय के एक-दो लोग सफेद बाज को मांस के टुकड़े खिला रहे थें। इससे पहले मैंने कभी सफेद बाज नहीं देखा था। विशाल, गर्व से सिर ऊपर ताने हुए मुँडेर पर बैठा हुआ था। कुछ लोग उसके साथ सेल्फी ले रहे थें तो कुछ लोग उसकी फोटो खींच रहे थें। बाज की फोटो लेने के बाद, हम सब का ग्रुप फोटो लिया गया और फिर जिसे जाना था वो लोग अलविदा कहते हुए अपने-अपने गंतव्य स्थल को चले गये। धीरे-धीरे शाम हो चली थी सूरज बादलों में कहीं दूर आधा छिप चुका था, कुछ लोगों को ये दृश्य इतना मनोहर लग रहा था कि वो इस पल को संजोये बिना रह न सकें। फिर जिसे जिसके साथ फोटो खिंचवाना था, खिंचवाने लगे। लोगों ने खूब मस्ती की, पार्टी का भरपूर आनन्द उठाया। नैना जो कल तक रूठी हुई थी वो अब इतनी प्रसन्न लग रही थी मानों कुछ हुआ ही न हो। उसने मुझसे मेरे कन्धे पर हाथ रखने की आज्ञा ली और ढेर सारी फोटो खिंचवायी। मैंने नैना से केवल एक प्रश्न पूछा- दीदी के इतने स्नेह के बाद क्या तुम उनके तानों का विरोध कर पाओगी? “वही तो… कोई कैसे करे? वैसे भी अब मैं उनपे ज्यादा ध्यान नहीं दे रहीं हूँ, पैसे मिल रहे हैं न उतना काफी है”, नैना ने कहा। नैना को प्रसन्न देखकर मुझे भी एक सुखद अनुभूति हुई। अब बारी आयी बिल देने की, बिल देखकर तो मेरे होश उड़ गये थे। हालाँकि मुझे बिल नहीं देना था लेकिन फिर भी सोलह लोगों के खाने-पीने का बिल बयालिस हजार रुपये? दिमाग हिला देने वाला था।

9 March 2024

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